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यो अ॑द्रि॒भित्प्र॑थम॒जा ऋ॒तावा॒ बृह॒स्पति॑राङ्गिर॒सो ह॒विष्मा॑न्। द्वि॒बर्ह॑ज्मा प्राघर्म॒सत्पि॒ता न॒ आ रोद॑सी वृष॒भो रो॑रवीति ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yo adribhit prathamajā ṛtāvā bṛhaspatir āṅgiraso haviṣmān | dvibarhajmā prāgharmasat pitā na ā rodasī vṛṣabho roravīti ||

पद पाठ

यः। अ॒द्रि॒ऽभित्। प्र॒थ॒म॒ऽजाः। ऋ॒तऽवा॑। बृह॒स्पतिः॑। आ॒ङ्गि॒र॒सः। ह॒विष्मा॑न्। द्वि॒बर्ह॑ऽज्मा। प्रा॒घ॒र्म॒ऽसत्। पि॒ता। नः॒। आ। रोद॑सी॒ इति॑। वृ॒ष॒भः। रो॒र॒वी॒ति॒ ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:73» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:17» मन्त्र:1 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब तीन ऋचावाले तिहत्तरवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में राजा किसके तुल्य कैसा हो, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! (यः) जो (प्रथमजाः) प्रथम उत्पन्न हुआ (अद्रिभित्) मेघों का विदीर्ण करने और (ऋतावा) जल को अच्छे प्रकार सेवनेवाला (बृहस्पतिः) पृथिवी आदि का रक्षक और (आङ्गिरसः) वायु और बिजुलियों में उत्पन्न हुआ (हविष्मान्) जिसमें हवि होमे हुए विद्यमान जो (द्विबर्हज्मा) दो से बढ़ता है, उससे युक्त भूमि जिसकी वह (प्राघर्मसत्) प्रताप का सेवनेवाला (नः) हमारा (पिता) पालनेवाले के समान (वृषभः) वर्षा करानेवाला मेघों को छिन्न-भिन्न करनेवाला (रोदसी) आकाश और पृथिवी को प्राप्त हो (आ, रोरवीति) बिजुली आदि के योग से सब ओर से शब्द करता है, उसके तुल्य तुम होओ ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा, मेघ का सूर्य जैसे शत्रुओं का विदीर्ण करनेवाला, ज्येष्ठ, महात्मा, धर्मात्मा जनों की पालना करनेवाला, प्रजावान्, पृथिवी पर सुख वर्षानेहारा होकर प्रजाओं में न्याय का निरन्तर उपदेश करे, वही पृथिवी के तुल्य क्षमाशील और प्रतापवान् तथा प्रजाजनों में पिता के समान वर्त्ते ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजा किंवत् कीदृशः स्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे राजन् ! यः प्रथमजा अद्रिभिदृतावा बृहस्पतिराङ्गिरसो हविष्मान् द्विबर्हज्मा प्राघर्मसन्नः पितेव वृषभोऽद्रिभिद् रोदसी आ रोरवीति तद्वत्त्वं भव ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) (अद्रिभित्) मेघच्छेत्ता (प्रथमजाः) यः प्रथमं जातः (ऋतावा) य ऋतं जलं संवनति भजति सः (बृहस्पतिः) बृहतां पृथिव्यादीनां पालकः (आङ्गिरसः) योऽङ्गिरसां वायुविद्युतामयमुत्पन्नः (हविष्मान्) हवींषि हुतानि द्रव्याणि विद्यन्ते यस्मिन् (द्विबर्हज्मा) यो द्वाभ्यां बृंहते स द्विबर्हस्तेन द्विबर्हेण युक्ता ज्मा भूमिर्यस्य (प्राघर्मसत्) यः प्रकृष्टं समन्ताद् घर्मं प्रतापं सनति सः (पिता) पालकः (नः) अस्माकम् (आ) (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (वृषभः) वर्षकः (रोरवीति) विद्युदादिना भृशं शब्दं करोति ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यो राजा मेघस्य सूर्यइव शत्रूणां विदारको ज्येष्ठो महतां धर्मात्मनां पालकः प्रजावान् पृथिव्यां सुखवर्षको भूत्वा प्रजासु न्यायं भृशमुपदिशेत्स एव पृथिवीवत् क्षमाशीलः प्रतापवान् प्रजासु पितृवद्वर्त्तेत ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात बृहस्पतीच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. मेघाचे सूर्य जसे विदारण करतो तसे जो राजा शत्रूचे विदारण करणारा, ज्येष्ठ, महात्मा, धर्मात्मा जनांचे पालन करणारा, प्रजावान, पृथ्वीवर सुखाचा वर्षाव करणारा असून प्रजेत न्यायाचा निरंतर उपदेश करतो, त्याने पृथ्वीप्रमाणे क्षमाशील व पराक्रमी बनून प्रजेशी पित्याप्रमाणे वागावे. ॥ १ ॥